पत्रकार के तौर पर मैं विनोद वर्मा को लंबे समय से जानता हूं। मेरे परिचय उस वक्त से है, जब वर्माजी दिल्ली में मध्य प्रदेश से निकलने वाले अखबार देशबंधु अखबार के ब्यूरो चीफ हुआ करते थे। मैने उन्हे हमेशा एक संजीदा, संवेदनशील और गहरी साहित्यिक अभिरूचि वाले व्यक्ति के तौर पर जाना है। आज सुबह-सुबह उन्हे हिरासत में लिये जाने की ख़बर आई तो मैं हतप्रभ रह गया।
विनोद वर्मा हिंदी के कई बड़े संस्थानों में संपादक रह चुके हैं। बीबीसी लंदन से भी वे लंबे समय तक जुड़े रहे हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक सवालों के साथ मानवाधिकार संबंधित मुद्धों में भी उनकी गहरी रुचि रही है। ख़बर है कि छत्तीसगढ़ पुलिस की टीम विशेष रूप से गाजियाबाद आई और यूपी पुलिस की मदद से उन्हे हिरासत में लिया गया। उनके पास छत्तीसगढ़ के किसी नेता की आपत्तिजनक सीडी होने की बात कही जा रही है।
आपत्तिजनक शब्द एक बहुत ही रिलेटिव टर्म है। अंग्रेजी के मशहूर लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने कहा है- ख़बर वह नहीं होती है, जो हर कोई बताना चाहता है। ख़बर वह होती है, जिसे छिपाने की कोशिश की जाती है।
सीडी में क्या था, नेता कौन है, छत्तीसगढ़ पुलिस का आरोप क्या है। इन बातों की मुझे कोई जानकारी नहीं है। इसलिए मैं इन बातों पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन पहली नज़र में यह एक सम्मानित पत्रकार के उत्पीड़न का मामला लगता है, इसलिए मैं खुलकर अपना विरोध दर्ज करना चाहता हूं।
छत्तीसगढ़ सरकार को इस मामले पारदर्शिता दिखाते हुए बताना चाहिए उसका पक्ष क्या है और सुबह चार बजे असंदिग्ध ट्रैक रिकॉर्ड वाले एक पत्रकार के घर छापा मारकर उसे हिरासत में क्यों लिया गया।
यह ठीक है कि पत्रकार बिरादरी अब पूरी तरह बंट चुकी है। लेकिन सरकारी तंत्र के हावी होने का समर्थन किसी भी आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। सरकारे आती और जाती रहेंगी लेकिन इंस्टीट्यूशन के तौर पर मीडिया हमेशा रहेगा। मैं उम्मीद करता हूं कि पत्रकार समुदाय इस घटना पर एकजुटता दिखाएगा।
