मुहम्मद शमी या इरफ़ान पठान की बीवी के पहनावों पर फ़ब्तियां कसने वाले मुसलमान हैं. भाषा गुंडे-बदमाशों वाली है. बीमार और तालिबानी ज़ेहनियत के लोग हैं. ये मुसलमान हैं और मुसलमानों के बीच रहते हैं.
मैंने मुहम्मद शमी और इरफ़ान पठान की वॉल पर जाकर कमेंट्स करने वालों के काउंट्स बार-बार चेक किए हैं. मुझे हमेशा ओरिजनल अकाउंट्स मिले हैं. सही-ग़लत इस्लाम बताने वाले मुसलमान हैं. उन्हें बीजेपी के पेड ट्रोल्स कहकर बचाव नहीं करना चाहिए.
मुसलमानों के कई कमेंट्स ऐसे होते हैं जिन्हें पढ़कर डर लगता है. कई धमकी भरे कमेंट्स पढ़ने से अफ़ग़ानिस्तान में ध्वस्त हो चुकी तालिबानी हुक़ूमत की यादें ताज़ा हो जाती हैं.
हर मज़हब की तरह मुसलमान भी धर्मांध और पिछड़ेपन के शिकार हैं. उन्हें अल्लाह मियां की गाय की तरह मत पेश करिए. उनकी इन बीमारियों से मुंह मोड़ना बीमारी को बढ़ावा देने जैसा है.
सही कहा शाह आलम साहब ने! मुसलमानों को ‘अल्लाह मियां की गाय’ बनाकर पेश करते रहने से मुसलमानों का बहुत ही नुकसान हुआ है. secularism में विश्वास होने का मतलब यह नहीं कि हम दकियानूसों के apologists बन जाएं.