कल अलग गोरखालैंड के आंदोलन को एक महीना हो जाएगा। 29 दिनों से दार्जिलिंग जल रहा है। कई लोग मारे जा चुके हैं। अर्धसैनिक बलों से बात नहीं बनी तो सेना के जवानों को वहां उतारा गया, लेकिन बातचीत की अब तक कोई ठोस पहल नहीं हुई। मान लिया गया कि ये पूरी तरह लॉ एंड ऑर्डर का मामला है।
ममता बनर्जी तो पहले दिन से इसे क़ानून-व्यवस्था का ही मुद्दा मान रही है, केंद्र सरकार की तरफ़ से राजनाथ सिंह ने पंद्रह-बीस दिन पहले मिजोरम से लौटते हुए रवां-दवां तरीके से गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के सचिव रोशन गिरी से मुलाकात कर ली थी। इसके बाद कुल जमा कोशिश यही रही कि केंद्र ने राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी, राज्य सरकार टालती रही।
“क़ानून-व्यवस्था का मामला” बताते ही व्यापक तौर पर दूसरे इलाक़ों का समर्थन सरकारों को मिल जाता है। हर राजनीतिक आंदोलन को यहां क़ानून-व्यवस्था का आंदोलन बताया जाता रहा है। कश्मीर तक को।
दार्जिलिंग अगर क़ाबू में नहीं आ रहा है तो ये ममता बनर्जी की तरफ़ से लोकलुभावन नीतियों का ही नतीजा है। 2011 में जब GTA बनाया गया तो उसमें ममता बनर्जी ने गोरखा अस्मिता को विखंडित कर कई जातियों की अस्मिता में बांट दिया। सोचा ये कि इससे “गोरखा अस्मिता के बैनर तले” कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं हो पाएगा।
नैशनलिटी का मुद्दा वहां ज़माने से उठता रहा है। इस बार बांग्ला भाषा के बहाने जो आंदोलन शुरू हुआ है वो बहुत तेज़ है। नैशनलिटी के मूवमेंट को पुलिसिया डंडे से ठीक करने में जुटी है सरकार!!
लेकिन छह साल बाद अब बिमल गुरुंग समेत जीटीए के ज़्यादातर लोगों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। गोरखालैंड में राजनीति करने वाली कोई भी पार्टी इस वक़्त अलग गोरखालैंड की मांग के विरोध में नहीं जा सकते। सुभाष घीसिंग की पार्टी गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने तृणमूल से गठबंधन तोड़ लिया। अब उस पार्टी का भी एक कार्यकर्ता पुलिस फायरिंग में मारा जा चुका है।
तृणमूल कांग्रेस गोरखालैंड को अलग होने नहीं देना चाहती, गोरखालैंड के लोग बिना अलग हुए आंदोलन वापस लेना नहीं चाहते, बीजेपी अलग गोरखालैंड के विरोध में भी है और वहां इनके कुछ नेता ख़ुद को आंदोलनकारी बनाकर भी पेश कर रहे हैं।
त्रिपक्षीय बातचीत की मांग समूचा विपक्ष कर चुका है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस और केंद्र सरकार की अब तक बैठक नहीं हो पाई। ग़लती प्रदर्शनकारियों की है या बीजेपी-तृणमूल की?