लखनऊ 8 जुलाई 2016। रिहाई मंच ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा अक्षरधाम मंदिर
हमला मामले में सालों जेल में रहने के बाद बरी हुए लोगों को मुआवजा देने
से मना करने को न्यायिक अन्याय करार देते हुए इसे न्यायप्रणाली मंे लोगों
के विष्वास को तोड़ने वाला फैसला बताया है। मंच ने कहा है कि ऐसे फैसले
यह साबित करते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था में किस हद तक साम्प्रदायिक
मानसिकता के तत्व प्रवेष कर चुके हैं। मंच ने मांग की है कि अपने को
धर्मनिरपेक्ष कहने वाली सपा, बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियां ऐसा फैसला
देने वाले जजों के खिलाफ संसद में इम्पीचमेंट प्रस्ताव लाएं और अपनी
धर्मनिरपेक्षता साबित करें।
रिहाई मंच नेताओं और अक्षरधाम हमले पर ‘आॅपरेषन अक्षरधाम’ नाम से आई
पुस्तक के लेखकों षाहनवाज आलम और राजीव यादव ने जारी प्रेस विज्ञप्ति में
पीड़ितों को मुआवजा न देने को मोदी के पक्ष में न्यायपालिका के खड़े होने
का एक और उदाहरण बताया है। उन्होंने कहा है कि मुआवजे की मांग को खारिज
करते हुए जस्टिस दीपक मिश्रा और अर बानूमथि का यह तर्क देना कि इससे
खतरनाक परम्परा पड़ जाएगी अपने आप में न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है
क्योंकि न्याय का सिद्धांत पीड़ितों के मुआवजे और उत्पीड़कों को दंड के
विधान पर टिका है और यह फैसला न्याय के सिद्धांत के इन दोनों ही मूलभूलत
आधरों को नकारता है। उन्होंने कहा कि दस-दस साल तक जेलों में पुलिस की
साम्प्रदायिक मानसिकता के चलते रहने के बाद अगर उन्हें अदालत मुआवजा देती
और उन्हें फंसाने वाले पुलिस अधिकारियों को सजा देती तो उससे लोकतंत्र को
मजबूत करने वाली एक नई परम्परा की नींव पड़ती। उन्होंने कहा कि जस्टिस
दीपक मिश्रा द्वारा दिए गए तर्कों के कारण ही पुलिस बेगुनाहों को फर्जी
मामलों में फंसाने और उनको फर्जी मुठभेड़ों में मारने का साहस करती है
क्योंकि उन्हें पूरी उम्मीद होती है कि कोई जस्टिस दीपक मिश्रा उनकी
रक्षा के लिए न्याय के सिद्धांतांे की धज्जियां उड़ाने के लिए तैयार बैठे
मिलेंगे।
3 वर्षों के गहन रिसर्च और हजारों पन्नों के कानूनी दस्तावेजों की पड़ताल
और सैकड़ों प्रासंगिक लोगों से इंटरव्यूव और इस प्रक्रिया में गुजरात
क्राइम ब्रांच द्वारा ‘उठाए’ जाने के बाद हिंदी और उर्दू में लिखी गई
पुस्तक के लेखकों ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि अक्षरधाम मंदिर हमले
में आरोपी बनाए गए 6 लोगांे जिनमें से 3 को निचली अदालतों ने फांसी की
सजा सुनाई थी और बाद में सभी सुप्रीम कोर्ट से बरी कर दिए गए, का बिना
अपराध किए एक दषक तक जेल मंे रहना अपने आप में भारतीय न्यायव्यवस्था को
मजाक साबित करने के लिए पर्याप्त था। लेकिन जस्टिस दीपक मिश्रा और आर
बानूमथी ने अपने फैसले से एक बार फिर भारतीय न्याय व्यवस्था को षर्मसार
कर दिया है। उन्हांेने कहा कि यह एक ऐसा षास्त्रीय मामला था जिसके
पीड़ितों को न सिर्फ मुआवजा दिया जाना चाहिए था बल्कि मौजूदा प्रधानमंत्री
और घटना के समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी जिनके पास
गृहमंत्रालय भी था, के खिलाफ भी बेगुनाहों को फंसाने का मुकदमा चलना
ंचाहिए था। क्योंकि आरोपियों को बरी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस
एके पटनायक और वी गोपाला गौडा की बंेच ने न सिर्फ आरोपियों को बरी करने
का हुक्म दिया था बल्कि तत्कालीन गृहमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी आरोपियों
के खिलाफ पोटा के तहत मुकदमा चलाने की अनुमति देने में अपने ‘दिमाग का
इस्तेमाल’ न करने के लिए फटकार लगाई थी।
षाहनवाज आलम और राजीव यादव ने कहा कि इस कथित आतंकी हमले पर षुरू से ही
नागरिक समाज और मानवाधिकार संगठन सवाल उठाते रहे हैं जिसपर स्वयं अदालतों
को भी स्वतः संज्ञान लेते हुए पूरे प्रकरण की ही जांच करानी चाहिए थी।
उन्हांेने कहा कि इस मामले में मुस्लिम विरोधी मानसिकता से ग्रस्त गुजरात
पुलिस और एनएसजी ने दो अंजान व्यक्तियों को मार कर दावा किया था कि उसने
मंदिर पर हमला करने वाले दोनों फिदाई हमलावरों को मार गिराया है। पुलिस
रिकाॅर्ड के मुताबिक दोनों हमालवार सादे कपड़ों में थे। जबकि पोटा अदालत
में घटना के चष्मदीद गवाह प्रवीणभाई छोटालाल खेतानी, राजेषभाई मधुभाई
पटेल और परेषभाई जयंतीभाई ब्राह्मण ने अदालत में बताया था कि हमलावर
मिलीटरी की वर्दी में थे। उन्होंने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि पुलिस
के मुताबिक हमलावर सादे लिबास में हों और प्रत्यक्षदर्षीयों के मुताबिक
वे मिलीटरी की वर्दी में हों? उन्हांेने कहा कि यह सवाल इस सम्भावना की
तरफ भी इषारा करता है कि कहीं यह पूरा प्रकरण ही सत्ता प्रायोजित तो नहीं
था। रिहाई मंच नेताआंे ने कहा कि इसी तरह पुलिस ने कीचड़ और खून से सनी
कथित फिदाईन की लाषों जिनकी टांगों में 25-25 गोलियां लगी थीं, की पैंट
की जेबांे से बिना दाग धब्बे का बिल्कुल साफ पत्र बरामद दिखा दिया था और
इसी आधार पर पत्र के लेखक होने के आरोप में दो लोगों को फांसी की सजा
सुना दी गई थी। ये सारे तथ्य इस पूरे मामले के पीड़ितों को न सिर्फ मुआवजे
के हकदार बनाते हैं बल्कि पूरे मामले में पुलिस और एनएसजी, तत्कालीन
मुख्यमंत्री मोदी और तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी की भूमिका की
भी जांच की मांग करते हैं। लेकिन दीपक मिश्र और आर बानूमथी के फैसले ने
सच्चाई पर छाए बादलांे को और घना कर दिया है क्योंकि अगर बात मुआवजे की
होती तो फिर पुलिस की भूमिका पर भी बात होती कि उन्होंने यह कारनामा
किनके कहने पर किया था। जिससे की पूरा मामला ही खुल कर सामने आ सकता था।
इसीलिए यह फैसला सिर्फ पीड़ितों को मुआवजे से वंचित करने वाला नहीं है
बल्कि असली दोषियों को बचाने वाला एक विषुद्ध राजनीतिक फैसला है। जिसकी
निंदा करना, जिस पर सवाल उठाना न्याय के सिद्धांतों के पक्ष में खड़ा होना
है।
रिहाई मंच ने कहा कि इस घटना के संदर्भ में कई वरिष्ठ पुलिस और
खुफिया अधिकारियांे ने उन्हें बताया था कि ये आतंकी घटना नहीं थी बल्कि
सरकार और सुरक्षा एजेंसियों द्वारा किया गया ‘कैपेबिलिटी डेमोंस्ट्रेषन’
था। जिसकी जानकारी पहले से ही मोदी और पुलिस को थी। यहां तक कि एक वरिष्ठ
अधिकारी को सिर्फ इसलिए दूसरे विभाग में ट्रांसफर कर दिया गया था कि
उन्होंने मोदी से इसके बारे में एक हफ्ते पहले ही पूछ लिया था। लेखकों ने
अपनी पुस्तक में इस सम्भावना का भी जिक्र किया है कि इस कथित हमले के लिए
बम्बई सिलसिलेवार धमाकों के लिए दाऊद इब्राहिम द्वारा भेजे गए आर्जीज
कम्पनी के ग्रेनेड्स का इस्तेमाल किया गया था जिसका एक बड़ा जखीर गुजरात
पुलिस ने 1993 में गुजरात के समुद्री तट से लगे इलाकों से जब्त किया था।