(सैराट, नागराज मंजुले द्वारा निर्देशित दूसरी फीचर फिल्म है। नागराज की पहली फिल्म ‘फैंड्री’ थी, जिसके लिए उनको सर्वश्रेष्ठ पहली फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला था। फिल्म के बारे में हम आपको कुछ नहीं बताएंगे, क्योंकि ये दोनों ही बेहद कड़वी फिल्में आपको देखनी चाहिए। फिलहाल यह एक गद्य, जो अभिनेता, कवि और लेखक प्रदीप अवस्थी ने लिखा है।)
आवाज़ें थम गईं हैं और नन्हे से तलवों में जो लगा है निशान छोड़ता हुआ ज़मीन पर, वह किसी त्यौहार पर लगाया गया आलता नहीं है | उसे, उस नन्हे तलवों वाले बच्चे को अब उन पैरों से किस राह पर चलना है, इस देश के रहनुमाओं को सब कुछ छोड़कर पहले इसका ख़याल करना चाहिए | वो जब बड़ा होगा, तो उससे होड़ करने चले आएंगे गालियाँ देते हुए वे सब, जिनके घर की रसोई का इस्तेमाल किसी भी और सामान्य घर की रसोई की तरह, अब तक सिर्फ़ चाय और खाना बनाने के लिए ही हुआ है |
हमारे मोहल्ले में एक मवाली था | मवाली वो तब था, जब मैं छोटा था | मेरे बड़े होते-होते वो इलाक़े का कद्दावर नेता बन चुका था | अब जनता और संसाधनों पर कब्ज़ा था उसका | यहां मेरा मोहल्ला (शायद आपका भी) और फ़िल्म का मोहल्ला एक हो जाता है | उसका बेटा स्कूल के एक अध्यापक को थप्पड़ मारता है | अध्यापक नया आया है |
‘तुम उसके साथ सो तो लिए ना ! अब क्या दिक्कत है | वो भी तो हमारी औरतों को उठा ले जाते हैं’- वही अध्यापक कहता है, एक लड़के से जो प्रेम में है |
वैसे ऐसा तो मुझे भी कहा जा चुका है, एक अलग सन्दर्भ में ही सही | ‘तू सो तो लिया ना उसके साथ’! जैसे कि दुनिया में जितने भी लोग प्यार में पड़े या जिन्होंने भी शादियां कीं, महज़ सोने के लिए और जब यह मक्सद पूरा हो गया तो उसके बाद कुछ भी हो क्या फ़र्क पड़ता | ऐसा एक दोस्त ने कहा मुझसे, तब मैं उसके ही घर रुका था |
हम सब के लिए ख़ुश होने का विषय है कि देश में डेमोक्रेसी है, पर इसके शहरों में और गाँवों में कहीं नहीं है डेमोक्रेसी | डेमोक्रेसी के सबसे बड़े कब्रिस्तान हमारे घर हैं |
अंतराल से पहले तक उन्माद है जो हंसाता है, बड़े-बड़े सपने दिखाता है और रह-रह कर डराता है | बाद में उन्माद ठंडा पड़ता है, बिल्कुल जीवन और प्रेम की तरह और यहीं फ़िल्म एक अजीब खिसियाहट से भर देती है | जैसे हम सपने में चल रहे हैं और पता है नींद तो खुलेगी ही | नागराज मंजुले की भर-भर कर प्रशंसा इस बात के लिए कि वे हतप्रभ करते हैं अंत से | ये जो अंत है, ये सिनेमा की भाषा का चरम है | यहां आप मराठी या हिंदी भूल जायेंगे | यहां फ़िल्म एकदम चुप है, लेकिन सबसे ज़्यादा शोर यहीं करती है | दिल में धक् से कुछ बैठ जाता है और कैमरा बच्चे के रोते चेहरे पर है और नंगे तलवों पर |
आपको प्रेम में पागल और निडर लड़की देखनी है, तो अर्चना है | उसे डर नहीं है किसी बात का | वो उस लड़के के भरोसे भी नहीं बैठी जिससे प्रेम में है, अपने हिस्से की लड़ाई वो बखूबी लड़ती है, फिर चाहे अपने पिता के सामने पुलिस स्टेशन में, अपहरण और बलात्कार की झूठी रपट में फंसाए गए अपने पर्श्या और उसके दोस्तों को बाहर निकलवाने के लिए सबसे भिड़ जाना हो या अपने पिता के आदमियों (गुंडे पढ़ें ) पर गोली चला देना हो | अर्चना में निडरता है लेकिन दबंगई नहीं | दबंगई, जो उसके बाप और भाई में कूट-कूट कर भरी है | पर्श्या प्रेम में है, लेकिन उसमें वही डर है जो हमारे समाज में कई लोगों की परवरिश में घोल दिया जाता है | वो सहमता है, शर्माता है, डरता है | वो हमारे जैसा है, हमारी हिंदी फिल्मों के हीरो जैसा सुपरमानव नहीं, जो दयालू, वीर, ना डरने वाला, दस को एकसाथ मारने वाला होता है |
और इनका प्रेम है | यदि आपको अपने प्रेम के शुरूआती दिनों को महसूस करना है फिर से, तो देखिए कि कैसे बाँधा है निर्देशक ने आपको | लड़के का शर्माना और लड़की का निडर होते जाना एक साथ घटता है और आईने के सामने ख़ुद से और अपने शरीर से पहचान करती लड़की | यूं बांधना दरअसल एक साज़िश थी कि आप हश्र देखें | ये साज़िश कि आप भाग नहीं सकते अब बिना देखे, देखो कि तुम बहुत हँस लिए, अब जलता हुआ सच आँखों में गिरेगा |
आप शहर बदल लेंगे, ख़ुशी से जीएंगे और जीवन को बेहतर बनाएंगे लेकिन एक दिन एक परछाई आकर उनको ढँक लेगी | साल कितने ही बीत जाएं, वे आकर चाय पीएंगे इत्मीनान से और बदला लेंगे |
और एक सच जिसका ज़िक्र नागराज मंजुले ने नहीं किया, मैं भी नहीं करूँगा सिवाय इसके कि पर्श्या का घर कई झोपड़ियों के बीच एक झोंपड़ी और उसका काम मछली पकड़ना, हालांकि वो कविताएँ लिखता है |
ध्यान रखें, यहां जातिवाद और पितृसत्ता के बारे में कुछ नहीं कहा गया है |
