Writer: Devesh Tripathi
A Hillele Report
याद कीजिये 2016 के बीत गए महीनों को. हैदराबाद केन्द्रीय
विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से शुरू
हुआ साल बढ़ता हुआ पहुंचा जेएनयू और फिर देशद्रोह से लेकर
राष्ट्रवाद की बहसों ने देश के दिलों-दिमाग पर कब्ज़ा जमा लिया.
इस बीच इसी देश का एक हिस्सा सूखते-सूखते इतना सूख गया कि
देश की नज़र में ही नहीं आया. यह कहना मुश्किल है कि उसे
बारिश की कमी ने इतना सुखाया या हमारी उपेक्षा ने. इस उपेक्षा
को मैं हमारी उपेक्षा ही कहूँगा, बाक़ी सरकारों की बात क्या ही
करना. सरकारों की नीयत पर भरोसा हो,हमें इतना सीधा नहीं
होना चाहिए.
आप शीर्षक देखकर सोच रहे होंगे कि मैंने शुरुआत ही अंत के साथ
कर दी है पर यकीन मानिए मैं मजबूर हूँ यह लिखने के लिए. मैं
यह मानकर चल रहा हूँ कि आपको मालूम होगा मराठवाड़ा क्षेत्र
के सूखे के बारे में. आपको यह भी मालूम होगा कि लातूर में पूरे
अप्रैल महीने में जल-स्रोतों के आस-पास धारा 144 लागू थी और
यह भी कि लगभग 24 लाख की आबादी वाले लातूर से 1.5 लाख
लोग अब तक जल-संकट की वजह से विस्थापित हो चुके हैं. लातूर
‘शहर’ में जब जल-संकट के कारण कर्फ्यू की स्थिति पैदा हुई तो
राष्ट्रीय मीडिया ने लातूर पर खूब बहसें चलाई, अच्छा लगा. असर
भी हुआ इसका और सरकार ने लातूर को बाहर से पानी उपलब्ध
कराना शुरू किया. पानी से लदी ट्रेनें भेजी गईं और लातूर शहर
नगर-निगम के कर्मचारियों के अनुसार अब तक 4 करोड़ लीटर
पानी ट्रेनों के माध्यम से लातूर शहर के लिए भेजा जा चुका है.
फिर एक दिन बारिश की ख़बर चली और सबने ख़ुशी मनाई लातूर
के लिए, मनानी भी चाहिए थी. पर ज़मीनी हक़ीक़त हमेशा की
तरह कुछ और ही है जिसे जानने के प्रति हमारी रुचि शायद होती
नहीं है.
लातूर शहर का जो पहला व्यक्ति टकराया(गजानन निलामे,
गायत्री नगर निवासी), उसने बताया कि जो पानी ट्रेनों के माध्यम
लातूर के लिए भेजा जा रहा है वह केवल लातूर शहर के लिए है,
ग्रामीण क्षेत्रों के लिए नहीं. शहर की स्थिति के बारे में पूछने पर
गजानन बताते हैं कि शहर में नगर निगम के टैंकर हर वार्ड में
पानी पहुंचाते हैं. औसतन 8-9 दिनों के अंतराल पर आने वाले इन
टैंकरों के माध्यम से एक परिवार को 200 लीटर पानी की आपूर्ति
की जाती है. अब सोचिये कि 200 लीटर पानी में एक परिवार कैसे
8-9 दिन काटता होगा? पीने के अलावा बाकी काम के लिए भी
इसी पानी का इस्तेमाल करना होता है. पानी की क्वालिटी के बारे
में जानना चाहते हैं तो इतने से काम चलाइए कि 6 मई को एक
राष्ट्रीय चैनल ने ख़बर चलाई थी जिसके अनुसार लातूर शहर के
शिवाजी चौक के पास स्थित ‘आइकॉन अस्पताल’ में 5-6 मरीज
भर्ती किये गए हैं जिनकी किडनी पर ख़राब पानी की वजह से
असर पड़ा है. गजानन ने ही बताया कि क्षेत्र में पानी के दलाल पैर
जमाये हुए हैं. इलाके में ‘सनराइज’ बोतल-बंद पानी की सबसे बड़ी
कंपनी है जो पानी की दलाली भी करती है. इसके अलावा कई
छोटी-बड़ी कंपनियाँ हैं जो बोतल-बंद पानी तो बेंचती ही हैं, अलग
से भी पानी बेंच रही हैं. पूरे लातूर में औसतन 350-400 रूपये में
1000 लीटर और 1100-1200 रूपये में 5000-6000 लीटर का
रेट चल रहा है.
गायत्री नगर में ही रहने वाले,पेशे से मजदूर रामभाऊ ने बताया
कि लातूर में पिछले तीन महीने से किसी भी तरह का निर्माण-कार्य
बंद है जिसकी वजह से मजदूरों के लिए कोई काम नहीं रह गया है.
रामभाऊ बताते हैं कि दिक्कत तो सालों से है लातूर में पर पिछले 5
सालों से खेती बिलकुल ख़त्म हो गई और जब यहां सबकुछ ख़त्म
होने के कगार पर है तब जाकर हमारी बात हो रही है. मैट्रिक तक
पढ़े और साहित्य के गंभीर पाठक रामभाऊ कहते हैं कि ‘मैं आज
तक अपना घर नहीं खड़ा कर पाया, अब शायद कर भी नहीं
पाउँगा.अगले दो-तीन सालों में सबकुछ ख़त्म हो जायेगा. लातूर में
एक आदमी भी नहीं दिखेगा.’ रामभाऊ लातूर के गांवों के लिए
चिंता जताते हुए कहते हैं कि ‘शहर में तो फिर भी किसी तरह
इतना पानी अभी आ रहा है जिससे जी ले रहे हैं लोग पर ग्रामीण
क्षेत्रों के लिए तो कुछ भी नहीं है. यहां तक कि लातूर शहर के
मुख्यालय से बमुश्किल 4-5 किमी दूर के क्षेत्रों से ही हाहाकार की
स्थिति शुरू हो जाती है. प्रकृति से मात खाए इन लोगों के लिए न
तो सरकार है, नगर निगम भी नहीं है. इनके लिए ट्रेन से पहुँच रहा
पानी भी नहीं है.’रामभाऊ की बातों को सुनकर लगा कि
जुमलेबाजों और उनके जुमलों के बीच रहते-रहते हमारी आदत हो
गई है खरी आवाज़ों को अनसुना कर देने की. कलपुर्जों-सा जीवन
जीते-जीते आज हम मनुष्यता से कितनी दूर जा खड़े हुए हैं, हम
ख़ुद भी नहीं जानते. ज़मीन से 700-800 फीट नीचे भी अगर
पानी नहीं मिल पा रहा तो इसका साफ़ मतलब है कि भयंकर
उपेक्षा हुई है इस क्षेत्र की. पानी किसी ज़माने में 100-150 फीट
पर ही मिल जाता था तो जलस्तर गिरने पर एक ही बार में इतना
नीचे जा ही नहीं सकता कि पानी के ठिकानों की बाकायदा खोज
शुरू करनी पड़ जाए. खैर आगे बढ़ते हैं….
लातूर शहर में 4 ‘वाटर फिलिंग पॉइंट’( बड़ी टंकियाँ) हैं जहाँ से
सारे सरकारी टैंकर भरे जाते हैं. इनकी जगहें हैं ‘सरस्वती
कॉलोनी’, ‘गाँधी चौक’, ‘नांदेड़ नाका’, नया रेणापुर नाका’.जब
हम सरस्वती कॉलोनी फिलिंग पॉइंट पर पहुंचे तो पानी भरने
वालों की लम्बी-लम्बी कतारें दिखाई दी.बहुत से लोग ऑटो में,
सायकिल पर ढेर सारे घड़ों में पानी भर कर ले जाते हुए दिखे.
इनसे बात करने पर पता चला कि लोग 2-3- 4-5 किमी दूर से
पानी भरने आये थे. लातूर के कलेक्टर ने लोगों को फिलिंग पॉइंट्स
से पानी ले जाने की अनुमति दे दी है.जानकारी के लिए, ट्रेनों से आ
रहा पानी इन फिलिंग पॉइंट्स में भर दिया जाता है. पानी भर रहे
लोगों ने बताया कि यहां से पानी भरने में पूरा दिन निकल जाता
है.लम्बी कतारें होती हैं, नंबर लगे होते हैं. ज़रा-सा ढीले पड़े कि
नंबर गया. सुबह जल्दी पहुँच जाने पर नंबर 2-3 घंटे में आ जाता
है पर लेट हो जाने पर और भीड़ बढ़ते ही नंबर 8/10/12 घंटे पर
ही आ पाता है.अनुमति मिलती है 15-18 घड़ों में पानी भरने की
और लोगों को पानी भरने के लिए हर तीसरे दिन फिलिंग पॉइंट्स
पर आना पड़ता है.चूँकि इस पूरी प्रक्रिया में पूरा दिन निकल जाता
है, इसलिए मौके पर पूरा परिवार मौजूद होता है. पानी भरने वाले
दिन आदमी काम पर नहीं जाता, बच्चे स्कूल नहीं जाते और घर की
औरतों के साथ मिलकर पानी भरते हैं. काम से बंक मारने की
भरपाई काम मिलने वाले दिनों में 17-18 घंटे काम करके पूरी की
जाती है.हर तरह का निर्माण कार्य बंद होने के कारण काम मिलने
की दशा में मजदूरों की मजबूरी का फायदा उठाया जाता है और
200-250 रूपये की दिहाड़ी पर ही काम करा लिया जाता है.
जबकि न्यूनतम दिहाड़ी 450 रूपये है. फिलिंग पॉइंट्स पर आपको
उन इलाकों के लोग ज्यादा मिलते हैं जो शहर में आते हैं फिर भी
वहां अभी तक कोई टैंकर नहीं पहुंचा है.
सरस्वती कॉलोनी में मौके पर नगर निगम के दो कर्मचारी मिल
गए जिन्होंने नाम न बताने की शर्त पर कुछ बातें हमसे शाया कीं.
मसलन, पहली बात तो यह कि जल-संकट को लेकर किसी से भी
बात नहीं करनी है. उन्होंने बताया कि लोगों को देने के लिए
महीने-डेढ़ महीने भर का पानी ही उपलब्ध है. उसके बाद कैसे
काम चलेगा पूछने पर वे हंसने लगे और बोले कि इसके लिए तो
कोई योजना या कोई मॉडल तो अभी तक नहीं तैयार है, सब
भगवान के ऊपर है अब.कर्मचारियों के अनुसार ट्रेनों से पहुंच रहे
पानी(25 लाख लीटर प्रति ट्रेन) में से 12% पानी कहाँ गायब हो
जाता है कोई नहीं जानता. पानी के दलाल पूरे इलाके में फैले हुए
हैं जिन्हें राजनीतिक पार्टियों/संगठनों का सहयोग प्राप्त है. जिन्हें
सरकारों से उम्मीद रहती है उनके लिए बताता चलूँ कि सूखे से
निपटने के लिए जनवरी माह में एक मीटिंग जिला मुख्यालय में की
गई थी. यह बात अलग है कि प्रस्तावित एजेंडों पर आज तक कुछ
किया नहीं गया. हाँ, मई के पहले हफ़्ते में पानी को लेकर
हेल्पलाइन नंबर जारी किया गया है. यह हेल्पलाइन नंबर काम
कितना कर रहा है इसकी कोई जानकारी अभी तक नहीं है. नाना
पाटेकर की‘नाम फाउंडेशन’ पूरे इलाके में काम कर रही अकेली
संस्था मिलेगी आपको. इन इलाकों में सक्रीय राजनीतिक
पार्टियाँ/संगठन किसी गैर सरकारी संगठन/संस्था को भी काम नहीं
करने देती. ‘नाम फाउंडेशन’ यहां तक कर रही है कि जो लोग
विस्थापित होने के इच्छुक हैं उन्हें पुणे के खुले मैदानों में बसाने का
प्रस्ताव रख रही है.
पानी
की कमी से त्रस्त इन इलाकों में आपको सबकुछ सूखा, गर्म,
खौलता-सा ही मिलेगा. पर सबसे भयावह होता है लोगों का
मुस्कुराते हुए स्थितियाँ बयान करना और हँसते हुए कहना कि 2-3
साल बाद यहां कोई नहीं दिखेगा. लगातार पियराते चेहरों में धंसी
आँखें जो दुनिया दिखाती हैं वहाँ भविष्य के उजले सपने नहीं होते,
अँधेरी गलियाँ होती हैं बस, अंधे कुंए में उतरती सीढियां होती हैं
केवल. आप इस दुनिया को देखते हैं और अपनी आँखें भी बंद नहीं
कर पाते. धरती पर आज तक पता नहीं कितनी सभ्यताएँ पैदा हुईं
फिर नष्ट हो गईं. शायद अब हमारी बारी है.
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