आमिर ने आख़िर क्या कहा, जो ऐसा हंगामा बरपा है? यही न, कि उनकी पत्नी ने हालात से तंग आकर उनसे देश छोड़ने की बात छेड़ी। कहा कि अख़बार देखकर डर लगता है। आमिर ने तो बस इसकी जानकारी दी, वह भी इसे ‘डिज़ास्टरस’ (विनाशकारी) बताते हुए । अगर दिक़्क़त है तो आमिर के नहीं उस किरण के बारे में सोचो जो उदास है। ऐसा क्या हो गया पिछले कुछ महीनों में !.
न..न..मसला सिर्फ़ सहिष्णुता या असहिष्णुता का नहीं है। कोई भी समाज न पूरी तरह सहिष्णु होता है और न पूरी तरह असहिष्णु। जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेद करने वाला समाज तो कभी भी सहिष्णु नहीं हो सकता। यह तो स्वतंत्रता संघर्ष से उपजे मूल्यों पर आधारित संविधान है जिसने पहली बार क़ानूनी रूप से तय किया कि भेदभाव अपराध है और सहिष्णुता भारतीय समाज का लक्ष्य, वरना तो भेदभाव के पक्ष में भी क़ानून थे। इसका यह मतलब नहीं कि 26 जनवरी 1950 को असहिष्णुता का लोप हो गया। विचार के स्तर पर संघर्ष को नई धार मिली, बस। और इस संघर्ष में जुटे लोगों ने कभी देश छोड़ने के बारे में नहीं सोचा, न सोच सकते हैं। ये तो भारत के लक्ष्मीपुत्र हैं जो हाथ में कमल का फूल लिए ख़ानदान समेत विदेश मेें बसने का सिलसिला छेड़े हुए हैं। इनमें ‘ख़ानों’ की तादाद दाल में नमक जितनी ही है।
हुआ दरअस्ल यह है कि असहिष्णुता के पक्ष में गोलबंदी को शासकीय सहमति हासिल हो गई है। या कहें कि असहिष्णुता सत्ता पाने का सिद्ध मंत्र बन गई है। दाल अगर दो सौ रुपये किलो बिक रही हो तो इस मंत्र को साधना और भी ज़रूरी हो जाता है। लट्ठपाणि शाखामृगों का सारा प्रचारतंत्र इसी में जुटा है ताकि बहस ‘ख़ान’ पर होती रहे, ग़रीबों के ‘दस्तरख़्वान’ पर नहीं।
माफ़ करना, ख़तरे में सहिष्णुता नहीं, संविधान हैं, क्योंकि ‘संगठित मूर्खता’ आपराधिक इरादों के साथ समता, न्याय और बंधुत्व के आखेट पर निकली है और हम कॉमे़डी सर्कस देख रहे हैं !
बहुत पुरानी कहावत है जो पुरानी परम्परा से चला आ रहा है ।वह है उल्टा चोर कोतवाल को डाटे ।हम आह भी करते है तो हो जाते है बदनाम वो कत्ल भी करते है तो चरचा नही होती ।किसी ने ठीक ही कहा है ।अपनी हिन्सा को भी ये अहिन्सा बना लेते है ।दुसरो की अहिन्सा भी हिन्सा दिखायी देती है ।
किसी को लिखने नही देते किसी को बोलने नही देते किसी कोकुछ करने नही देते हर जगह इनकी आस्था बीच मे आ जाती है ।आस्था और अन्धविवास मे क्या फरक है पता नही चलता ।