बिहार में सबकी साँस अटकी है! क्योंकि इस चुनाव पर बहुत कुछ अटका और टिका है! राजनीति से लेकर शेयर बाज़ार तक सबको बिहार से बोध की प्रतीक्षा है! किसी विधानसभा चुनाव से शेयर बाज़ार इतना चिन्तित होगा, कभी सोचा नहीं था. लेकिन वह इस बार वह बहुत चिन्तित है. इतना कि देश की तीन बड़ी ब्रोकरेज कम्पनियों ने ख़ुद अपनी टीमें बिहार भेजीं! मीडिया की चुनावी रिपोर्टों पर भरोसा करने के बजाय ख़ुद धूल-धक्कड़ खा कर भाँपने की कोशिश की कि जनता का मूड क्या है? क्यों भला?
शेयर बाज़ार का डर
वजह एक ही है. बाज़ार को लगता है कि बिहार के नतीजे मोदी सरकार की आगे की राह तय करेंगे. बिहार में अगर एनडीए की जीत होती है, तो कोई बात नहीं. मोदी सरकार जैसे चल रही है, चलती रहेगी. विकास का क़दमताल ही सही, कुछ तो हो ही रहा है. उम्मीद तो बनी ही हुई है कि आज नहीं तो कल, विकास की ड्रिल शुरू ही होगी. लेकिन बाज़ार को डर है कि अगर बिहार में एनडीए को हार मिली तो मोदी सरकार क्या राह पकड़ेगी, पता नहीं. लेकिन विपक्ष का हौसला ज़रूर बढ़ जायेगा और राज्यसभा में वह सरकार को ज़रूरी बिल पास नहीं कराने देगा. यानी विकास की सीटी ही नहीं बज पायेगी, गाड़ी चलना तो दूर की बात है!बाज़ार का यह आकलन अपनी जगह है, लेकिन राजनीति में सवाल इतना सीधा नहीं है. यहाँ सवाल यह पूछा जा रहा है कि बिहार में अगर एनडीए की जीत हुई तो यह विकास के एजेंडे को आगे बढ़ायेगी या संघ के?
जीत से संघ को मिलेगी नयी ताक़त
विकास का मुद्दा तो पहले ही देश के विमर्श से ग़ायब हो चुका है. बहस तो इस पर हो रही है कि देश में कहीं धार्मिक असहिष्णुता है भी या नहीं? आँकड़े पेश हो रहे हैं कि कब- कब साम्प्रदायिक हिंसा और तनाव की कितनी घटनाएँ हुईं? लेखकों ने पुरस्कार 1984 की सिख-विरोधी हिंसा के विरोध में क्यों नहीं लौटाये? फिर राज्यों में हो रही घटनाओं के लिए मोदी सरकार कैसे ज़िम्मेदार हो सकती है? बड़े मासूम तर्क हैं! बात एक दिन, दो दिन या एक घटना या कुछेक घटनाओं की नहीं है. पिछले अठारह महीनों की है. सबको पता है कि इन अठारह महीनों मे किस तरह संघ ने हिन्दुत्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पुरातनपंथी एजेंडे को लगातार बढ़ाया है! इसलिए अगर बिहार में एनडीए की जीत होती है तो संघ, उसके सहयोगी संगठनों और दूसरी हिन्दुत्ववादी ताक़तों को नयी शक्ति मिलेगी, औचित्य के नये तर्क मिलेंगे कि वे जो कुछ कर रहे हैं, बिहार की जनता ने उस पर मुहर लगा दी है. इसलिए वे हिन्दुत्व के एजेंडे पर निस्संकोच और निर्बाध आगे बढ़ सकते हैं!
लेकिन हार से भी कुछ बदलेगा नहीं
लेकिन अगर एनडीए की हार होती है, तो क्या होगा? बहुत-से लोग यह निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि तब संघ को अपने एजेंडे को फ़िलहाल कुछ दिनों के लिए तो तह कर के रख ही देना होगा और मोदी को वापस विकास का सिक्का चलाने की तरफ़ ध्यान देना पड़ेगा. लेकिन कहानी में ट्विस्ट तो यहीं पर है! अगर यह ‘हाइपोथीसिस’ सही है तो उत्तर प्रदेश विधानसभा के उपचुनावों और दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार से सबक़ सीख कर संघ चुप बैठ गया होता! लेकिन ऐसा कहाँ हुआ? उन पराजयों के बावजूद संघ और उसके सहयोगी संगठन अपने एजेंडे पर कहीं ज़्यादा ज़ोर-शोर से लगे रहे. हाँ, यह बात अलग है कि मूडी जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं की तरफ़ से शुरू हुई आलोचनाओं के बाद अब बीजेपी और मोदी सरकार ने ख़ुद को ऐसे तत्वों से अलग दिखाने की कोशिश की है. मुसलमानों के ख़िलाफ़ सुब्रहमण्यन स्वामी की टिप्पणी पर मोदी सरकार का सुप्रीम कोर्ट में बयान और शाहरुख़ ख़ान के मसले पर अपने कुछ नेताओं के बयानों से उसका ख़ुद को अलग कर लेना इसी कोशिश का हिस्सा था. लेकिन क्या यह हैरानी की बात नहीं है कि इतनी आलोचनाओं के बावजूद बीजेपी अपने नेताओं के ज़हरीले बयानों पर कोई लगाम नहीं लगा पायी? ऐसा कैसे हो सकता है कि पार्टी के न चाहने के बावजूद उसके नेता ऐसी बातें करते रहें और पार्टी उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई भी न करे!
अब राजस्थान और कर्णाटक भी
और क्या बिहार चुनाव में मोदी और अमित शाह दोनों ने ख़ुद अपने भाषणों के ज़रिये साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की कोशिशें नहीं कीं? संकेत साफ़ है कि ज़रूरत पड़ने पर वे बेहिचक इस हथियार का इस्तेमाल कर सकते हैं! और फिर धार्मिक असहिष्णुता पर मचे इतने गुल- गपाड़े के बावजूद अभी-अभी ख़बर आयी कि राजस्थान की स्कूली किताबों से वे सारे अध्याय हटाये जा रहे हैं, जो मुसलिम लेखकों ने लिखे हैं या जिनसे उर्दू, मुसलमानों या उनकी संस्कृति के बारे में कोई अच्छी झलक मिलती हो! साफ़ है कि राजस्थान की बीजेपी सरकार चाहती है कि हिन्दू बच्चे मुसलमानों के बारे में कुछ भी सकारात्मक न जानें और इस तरह मुसलमानों को समाज से अलग-थलग कर दिया जाये! उधर कर्णाटक में टीपू सुल्तान की जयन्ती मनाने के ख़िलाफ़ बीजेपी समेत संघ परिवार के संगठनों ने मोर्चा खोल दिया है. कहा जा रहा है कि टीपू ‘हिन्दू विरोधी’ था और उसने कूर्ग और मालाबार क्षेत्र में कई हिन्दू मन्दिर तोड़े थे. हालाँकि इतिहासकारों का कहना है कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता. ज़ाहिर है कि हाल की तमाम आलोचनाओं का संघ पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और देश भर में उसका अभियान बदस्तूर जारी है.
जीत या हार, जारी रहेगा एजेंडा
इसलिए बिहार चुनाव के नतीजे चाहे जो कुछ भी हों, बीजेपी और संघ के लिए न तो उसके निहितार्थ बदलेंगे और न उनकी दिशा! जीत हो या हार, संघ अपने एजेंडे पर ही चलेगा और ध्रुवीकरण अभियान यथावत जारी रहेगा. बल्कि हार के बाद तो ऐसी कोशिशें शायद और तेज़ ही हो जायें. क्योंकि यह साफ़ है कि पिछले डेढ़ साल में मोदी सरकार विकास की कोई ऐसी चमकीली कहानी नहीं लिख पायी, जिससे लोगों को चौंधियाया जा सके. अगले साल असम में विधानसभा चुनाव हैं. पूर्वोत्तर में पाँव पसारने के लिए संघ को असम जीतना बेहद ज़रूरी है. बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे के कारण साम्प्रदायिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील इस राज्य में काँग्रेस की ख़स्ता हालत जगज़ाहिर है. फिर 2017 में उत्तर प्रदेश की बेहद महत्त्वपूर्ण लड़ाई है. विकास की कोई कहानी हाथ में है नहीं, तो फिर अगला हथियार क्या बचा? वही ध्रुवीकरण, जिसे संघ ने अस्सी के दशक में राम जन्मभूमि आन्दोलन के ज़रिये बड़ी कामयाबी से आज़माया था. इस बार फ़र्क़ यही है कि राम जन्मभूमि जैसे एक बड़े आन्दोलन के बजाय छोटे-छोटे स्थानीय मुद्दों के ज़रिये पूरे देश में वही अस्सी वाले हालात बनाने की कोशिशें हो रही हैं. यह एक बड़ी रणनीति का हिस्सा है और इसका किसी चुनावी हार-जीत से कोई लेना-देना नहीं है. इसलिए यह तर्क सही नहीं लगता कि बिहार में अगर एनडीए की हार होती है तो संघ को अपने क़दम वापस खींचने पड़ेंगे. कम से कम मुझे ऐसी कोई उम्मीद नहीं है.तो सारे गुणा-भाग के बाद शेयर बाज़ार की यह सोच क़तई सही नहीं है कि बिहार में एनडीए की जीत या हार से विकास का कोई लेना-देना है! एनडीए जीते या हारे, ध्रुवीकरण को तो तेज़ किया ही जाना है. 2016 के संकेत शुभ नहीं हैं!