नहिं ” गुलाम ” आना यहाँ , नहीं रहा वह दौर ;
गज़ल सुनाते थे यहाँ , संकट मोचन ठौर !
संकट मोचन ठौर , बनारस हो या दिल्ली ;
गुर्राहट हर जगह , शेर अब हो गई बिल्ली !
कहें ” अखिल ” कविराय , मियाँ छोटे थे पहले ;
बड़े मियाँ अब साथ , जान सब की अब दहले !
Another one from Bundelkhand Poet Akhilendu Arjeria