इसी नाम की एक चर्चित हिंदी फिल्म 2013 के अंत में आई थी, लेकिन हायवे मराठी कुछ अलग है। हिल्ले के नए कलेवर में बहुत कुछ ऐसा शामिल है, जिसकी कमी कई गंभीर पाठकों को भी खल रही थी, सिनेमा हमारे लिए अब नियमित अंग होगा। जैसे कि हम कुछ साथियों की मदद से आपको बेहतरीन शॉर्ट फिल्म्स दिखा रहे हैं, वैसे ही कुछ साथी हमारे लिए लगातार दुनिया भर के सिनेमा पर लिखने को तैयार हैं। पिछले सप्ताह प्रदीप अवस्थी का फिल्म मांझी पर आलेख हमने प्रकाशित किया। इस सप्ताह प्रदीप अवस्थी हायवे – एक सेल्फी आरपार के बारे में बात कर रहे हैं। ये समीक्षा है और नहीं भी है, हिल्ले पर हम फिल्म को तकनीकी नहीं, कंटेंट के मापदंड पर तौलेंगे, जी हां, पहला मानक यही होगा…
आप मुंबई-पुणे हाईवे पर हैं | जैसे भी वाहन में आप यात्रा कर रहे हों-कार,ट्रक,टैक्सी ,बस,ज़रा देर उतरिए और सड़क के किनारे खड़े हो कर लगातार दौड़ती और निकलती जाती गाड़ियों का दृश्य देखिए | यह फ़िल्म आपको इन यात्रा करते लोगों की जिंदगियों और उनकी परेशानियों में ले जाती है और बहुत सहज ढंग से हमारे समाज में होने वाली लगभग हर घटना को बयान कर देती है | किसी फ़िल्म का नाम हाईवे हो,तो उसपर बनने वाली सबसे सार्थक फ़िल्म यही है |
कुछ भी कहने से पहले अपील कि गिरीश कुलकर्णी की लिखी हुई और उमेश कुलकर्णी द्वारा निर्देशित “मराठी फ़िल्म हाईवे” ज़रूर देखें | यह जोड़ी लगातार मराठी सिनेमा को स्थापित करती सवाल उठाती है कि क्यों हिंदी सिनेमा से ऐसी सहज और संवेदनात्मक कहानियाँ नदारद हैं |
इस फ़िल्म का असर यह है कि मैं अपनी एक रेल यात्रा के बारे में लगातार सोच रहा हूँ | एक दोस्त के साथ दिल्ली से मुंबई आते हुए,एक लड़के और लड़की से मुलाक़ात हुई | दोनों ही बोल और सुन नहीं सकते थे | उनके पास आरक्षित सीट नहीं थी | हमने अपनी एक सीट दी और हम आमने-सामने वाली अपर-बर्थ पर किसी तरह एडजस्ट हुए | फिर सफ़र भर उनसे बात-चीत का दौर चला | वे शादीशुदा थे | पहले एक डायरी पर लिखकर बातचीत होती रही,फिर उनसे थोड़ी सी साइन-लैंग्वेज भी सीखी | लड़के की उम्र 24 साल और लड़की की 20 साल थी | लड़की को डांस बहुत पसंद था | लड़का हृतिक रोशन और जॉन अब्राहम का फैन था | जिस तरह वे एक दूसरे के पूरक थे,ऐसे प्रेमी मैंने कम ही देखे हैं | बोल और सुन ना पाने के कारण ज़्यादातर समय उनकी नज़रें एक-दूसरे पर ही रहती थीं | वे पहले उतरे,हम भी ट्रेन से उतरकर उनसे विदा ले कर आए | वे याद रह गए |
इसी तरह के कई किस्सों से बनती है हाईवे की कहानी | जितने पात्र,उतनी कहानियाँ | जब हम सफ़र में होते हैं,तो चाहे-अनचाहे उनके जीवन की कुछ बातें जान जाते हैं | अपने साथ सफ़र करने वालों की वजह से कई बार दिक्कतें भी होती हैं,कई बार वे याद भी रह जाते हैं | हमें सामने से बस इतना दिखता है कि कोई हमारे साथ सफ़र कर रहा है | उनकी दुनिया में,उनकी ज़िन्दगी में क्या कुछ चल रहा है,यहाँ से कई कहानियाँ निकल सकती हैं |
एक और चीज़ जिस और मेरा ध्यान जाता है,वह यह कि कब कितना बोलना और कब चुप रहना,अपनी वजह से अपने आस-पास वालों को कोई दिक्कत ना होने देना,इस तरह की संवेदनशीलता होनी कितनी ज़रूरी है | ज़्यादातर लोगों को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनकी वजह से किसको क्या दिक्कत हो रही है |
जितना बाहर से दिखता है,उतना ही नहीं होता | हम सब कितनी ही तरह की दिक्कतों से गुज़र रहे होते हैं | ब्रेक-अप से गुज़रती एक लड़की,अपने बीमार पिता,जिनके बचने की उम्मीद कम है,की मृत्यु के कंसेंट पेपर्स पर साइन करने विदेश से आया उसका बेटा ,यात्रा के दौरान एक दुर्घटना में अपने पति का पैर फ्रैक्चर होने पर,उसको संभालती पत्नी,अपने सपने पूरे ना होते हुए देख एक भटका हुआ लड़का,एक सेक्स-वर्कर की बातचीत,उसके आस-पास के लोगों का उससे असहज होना,नौकरी,पैसे और माँ-बाप की चिंता,एक पति का काम में व्यस्त रहने के कारण अपनी गर्भवती पत्नी का ख़याल ना रख पाना,एक युवा का पूरे समय फ़ोन और विडियो-गेम में उलझे रहना |
यह सब सिर्फ़ कुछ परिस्थितियाँ हैं | इस तरह की हज़ारों चिंताएं और परेशानियाँ एक इंसान के अंदर चल रही होती हैं | ऐसी ही कहानियों को जोड़कर,एक कहानी जो बताती है कि यदि हमने कुछ समय थम कर सोचा नहीं,तो हम देर कर देंगे | हाईवे पर दौड़ती गाड़ियों,या यूँ कहिए कि दौड़ती जिंदगियों को रात के शांत माहौल में एक ट्रैफिक जाम और शांत बना देता है और यहीं सारी अलग-अलग कहानियाँ एक-दूसरे में घुल जाती हैं |
जीवन के रोज़मर्रा के शोर से गुज़रती हुई,लगभग अंत के क़रीब पहुँचकर फ़िल्म एकदम शांत हो जाती है,जैसे घोर कठिनाइयों के बीच सुकून | एक बच्चा बड़े से बंद बैग से निकलकर भागता है | यहीं से जिंदगियों को शुरू होना चाहिए | फ़िल्म का अंत एक सुखद शुरुआत है |
युवा कवि और अभिनेता हैं। इंजीनियरिंग की डिग्री के बाद कुछ समय नौकरी की और फिर थिएटर करने दिल्ली चले आए। तीन साल अरविंद गौड़ के अस्मिता थिएटर के साथ अभिनय किया और अब मुंबई में हैं। पिछले कुछ समय से अभिनय से भी कहीं ज़्यादा लेखन, प्रदीप अवस्थी की बेहद तीखी और मारक कविताएं ऑनलाइन धूम मचाए हुए हैं। प्रतिभाशाली युवा कवियों में नाम शुमार।