
वो एक दोपहर थी, जब अचानक शाम का अख़बार दोपहर में छप कर आ गया था, टीवी सेट्स के आगे आस-पास के घरों के लोग भी आ कर जुटने लगे थे और बूढ़े अपने ट्रांजिस्टर ट्यून करने लगे थे। अचानक तेज़ शोर सुनाई दिया, छतों पर लोग आ गए थे और प्रभातफेरी की टोली, जो कि पिछले 3 साल से हर रोज़ सुबह ‘जय श्री राम’ गाते हुए घर पर आती थी, दोपहर के वक़्त निकल आई थी। ख़बर की पुष्टि के लिए घर के सदस्य खासकर मामा और उनके दोस्त, लगातार पता कर रहे थे। प्रभातफेरी की टोली के ऊपर कुछ घरों से बाक़ायदा फूल बरसाए गए और कई घरों में उनको मिठाई खिलाई जा रही थी, शरबत बंट रहा था। आखिर पिछले तीन सालों में उन्होंने ही तो पूरे इलाके के हिंदुओं को बताया था कि एक मस्जिद का गिरना, देश के आगे बढ़ने के लिए कितना ज़रूरी था। तारीख शायद उसके कुछ साल बाद मुझे याद रहने लगी, क्योंकि देश उस तारीख को कभी भूल भी नहीं सकेगा।
वो 1992 की 6 दिसम्बर थी और रविवार था, सो स्कूल की छुट्टी थी। सुबह से दोपहर का एकसूत्रीय कार्यक्रम, उस किराए के मकान के साझा आंगन में क्रिकेट खेलना था। मैं 8 साल का था और इतने सारे लोगों को गाता-चिल्लाता देख कर रोमांचित हो जाता था, लगता था कि वाकई कुछ कमाल हो गया है। और फिर पूरे मोहल्ले को एक साथ ऐसा जोश में सिर्फ क्रिकेट मैच के दौरान ही देखा था। गली साथ में एक मुस्लिम दोस्त भी कभी-कभी क्रिकेट खेला करता था। उस दिन वह गायब था। मोहल्ले में 95 फीसदी आबादी सिख और हिंदू थी। 84 के सिख दंगों में मेरे घर वालों ने मोहल्ले के सिखों की सड़क पर पहरा देकर रक्षा की थी। लेकिन ये माहौल अलग था। इतना अलग कि समझने में ही बड़ा होना पड़ गया।
प्रभातफेरी के प्रमुख एक मल्होत्रा जी थे। मल्होत्रा जी संभवतः विहिप से जुड़े थे और उनका किसी चीज़ का व्यापार था। बहुत ईमानदार आदमी नहीं थे और उनके बारे में लोग दबी ज़ुबान से तमाम बातें करते थे, लेकिन जब से संघ और विहिप का झंडा लेकर, प्रभात फेरी और मुगलों के खिलाफ ऐतेहासिक नाटकों का मंचन शुरु करवाया था, अचानक से इलाके के सम्मानित आदमी हो गए थे।
साथ में मोहल्ले के तमाम वह लड़के रहते थे, जो अमूमन नुक्कड़ पर खड़े हो कर लड़कियों को छेड़ते नज़र आते थे या फिर हिंसक मारपीट और गुंडागर्दी में संलिप्त रहते थे। उनमें से कई के नाम आज भी ठीक से याद हैं। इन लड़कों से वैसे घर वाले बातचीत करने को भी मना करते थे, लेकिन जब प्रभातफेरी में आते या जुलूस में आते, तो घर वालों को उनका सत्कार करने में भी कोई दिक्कत नहीं होती थी। उस दिन तो कुछ खास ही था, अयोध्या से ख़बर आने वाली थी। अयोध्या कहां थी, ये नहीं पता था, लेकिन घर में फ्रिज, टीवी और अल्मारी पर कुछ स्टिकर चिपके थे, जो बीजेपी के कार्यकर्ता (कई घर में भी थे और हैं) दिया करते थे। विहिप के मेले और रथयात्राएं लगती थी, जहां भी ये सब सामान बेचा जाता था। पुराने शटर वाले टीवी पर पीले रंग का स्टिकर लगा था और अल्मारी पर लाल रंग का, दोनों में बाल खोले, धनुष लिए राम की रौद्र रूप में तस्वीरें थी और पीछे एक मंदिर था। अयोध्या के बारे में हम बच्चों को सिर्फ इतना पता था कि वहां पर यह मंदिर कभी था और अब फिर से यह वहां बनेगा। उस तस्वीर को देख कर काफी रोमांच था क्योंकि इमामबाड़े के अलावा कोई ऐतेहासिक इमारत कभी देखी ही नहीं थी। इतिहास से वास्ता, सिर्फ पौराणिक कहानियों के ज़रिए था और घरवाले अमूमन पढ़ने के लिए डांटते थे लेकिन ऐसे मौकों पर किसी को फर्क नहीं पड़ता था कि पढ़ाई हो रही है या नहीं…फिर संगीत का इस्तेमाल होता था, जिसमें मुझे बचपन से ही रुचि थी।
तो उस रोज़ इंतज़ार करते – करते अचानक टीवी और रेडियो पर ख़बर आई और तब तक शाम का अख़बार दोपहर में ही आ गया। घटिया से उस अख़बार को ले ले कर लोग माथे से लगाने लगे। अचानक से लोग मिठाइयां बांटने लगे…लेकिन तभी कुछ और हुआ….लोग छतों पर और आंगन में आ गए…थालियां पीटने लगे…घंट बजाने लगे…और शंखों की आवाज़ गूंजने लगी। रोमांच सा था….हम सब 8-10 साल के बच्चे थे और लग रहा था कि क्या हुआ है आखिर…लेकिन एक बात जो ठीक उसी वक्त नोटिस की थी…वह ये थी कि मोहल्ले के दो-तीन मुस्लिम घरों पर ताला लग गया था, जो कई दिनों तक नहीं खुला था। वो दोस्त उसके बाद कई दिन तक क्रिकेट खेलने नहीं आय़ा था। ये लखनऊ था और यहां के हिंदू कभी मुस्लिमों से ऐसी नफ़रत नहीं करते थे। गली का खेल बंद हो गया था और राजनीति का खेल शुरु हो गया था। उन घंटों, थालियों और शंखों की आवाज़ को अब याद करता हूं तो डर लगता है….उनको कभी सुनना नहीं चाहता हूं…रात को जब मुल्क अंधेरे की ओर जा रहा था, हमारे घरों में घी के दिए जलाए जा रहे थे…पटाखे फो़ड़े जा रहे थे…किसलिए…इसलिए कि इंसान, भगवान के नाम पर फिर से इंसान नहीं रहा था। मैं खेल रहा था, सोच रहा था कि इस साल तो दो बार दीवाली मन गई है…और किसी ने आ कर बताया भी था कि कल स्कूल बंद हैं…दरअसल पूरा शहर बंद होने वाला था…पूरा देश…दिमाग तो बंद हो ही चुके थे….हम मासूमों को भी एक अंधे कुएं में अपने ही भाईयों से युद्ध करने के लिए फेंका जा चुका था। हम ही अर्जुन थे, हम ही दुर्योधन और कृष्ण अब द्वारका से दिल्ली में राज करने आ गए हैं….कृष्ण ने ही तो युद्ध करवाया था न अर्जुन से?
इस वक्त भी मेरे सिर में वो घंटों-शखों का शोर गूंज रहा है…बेबसी अब शर्मिंदगी में बदल गई है…कभी परिवार को समझा पाया तो समझाऊंगा कि मंदिर या मस्जिद के बन जाने से इंसानियत का मुस्तकबिल नहीं बदलता है, सिर्फ सियासत की शक्ल बदलती है…उस रोज़ बजती थालियों में कितनी बार ठीक से खाना आया? कितनी बार उन घरों में घी के दीये जलाने का कोई असल मौका आया….राम खुद अयोध्या में सर्दियों में तंबू में ठिठुरते रहे और उनके नाम पर देश तोड़ने वाले महलों में हैं…उस रात दीयों की रोशनी के बाद बहुत अंधेरा था, टीवी सेट खुले थे और हिंसा की खबरें शुरु हो गई थी….
शेष अगली किस्त में…
मयंक सक्सेना पूर्व टीवी पत्रकार और वर्तमान स्वतंत्र कवि-लेखक हैं।
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Or,
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