हालांकि मॉडरेटर के तौर पर मैं साफ कर दूं कि केतन मेहता की फिल्म मुझे औसत ही लगी, लेकिन फिर भी प्रदीप अवस्थी का यह लेख पसंद आया। इसे पढ़िए और खासतौर पर गुजरात में घट रहे एक आरक्षण की मांग करने वाली ऊंची जाति के आंदोलन के आलोक में इसे देखिए…
- मॉडरेटर
उनकी स्त्रियों को बाज़ार में सरेआम छेड़ा गया | उन्होंने रोका तो उन्हें इतना मारा गया कि बस वह ज़िन्दा रह गए | उनकी स्त्रियों को रात में घर में घुसकर उठा लिया गया और सुबह वापस घर पर छोड़ दिया गया | बच्चों ने माँ से पुछा-माँ,रात में कहाँ चली गई थी ? उनकी स्त्रियों का बलात्कार किया गया और मारकर लाश को पास के तालाब में फेंक दिया गया |
किसी पंद्रह अगस्त को आपने इनके सामने गाने गाए-
“सारे जहाँ से अच्छा”
“भारत हमको जान से प्यारा है”
इनकी छाती में जो साँप लोटा और फिर वहीं रहने लगा,उसमें आप इसी तरह ज़हर भरते गए | न्याय मांगने पर कानून,न्यायपालिका सबने लात मार कर भगा दिया | नज़र मिला कर बात करने पर पैरों में नाल ठोक दी | भट्टी में गिरकर मरे तो आपको ईंटों का नुकसान दिखाई दिया | उनके खेत,उनकी ज़मीनें हड़पी,पढ़ने नहीं दिया | कहीं कोई रास्ता नहीं छोड़ा गया सिवाय इसके कि वे हर ज़्यादती बर्दाश्त कर जीना सीख लें |
आपको कभी नक्सली नहीं कहा गया |
इन्होंने हथियार का सहारा लिया,आपने नक्सली कह दिया |
प्यास से मरतों को कूओं से पानी नहीं पीने दिया,मंदिरों में नहीं घुसने दिया और दिन रात उनके घर की स्त्रियों के साथ संभोग किया | फिर आपको अपने देश और अपनी सवर्ण ऊँची जात और ग्रंथों और संस्कृति पर गर्व हुआ |
यहाँ शहरों में कोई दुर्घटना होती है,तो एम्बुलेंस बुलाई जाती है | अभी भी कितनी ऐसी जगहें हैं जहाँ यह सुविधा नहीं है | फगुनिया के पहाड़ से पैर फिसल कर गिर जाने के बाद और मृत्यु होने के बीच का जो समय था,क्या उसमें आप बेचैन नहीं होते रहे | मन में नहीं आया कि कोई तो होना था मदद करने को |
दशरथ मांझी की जीत हमारे पूरे सामाजिक तंत्र की हार है |
एक इंसान बाईस साल तक पहाड़ तोड़ने में लगा रहता है और कोई नहीं होता सुध लेने को | हमें ज़रा गहराई से सोचना चाहिए की बाईस साल होता कितना है | बात 1960 से 1982 तक की ज़रूर है पर क्या अब ऐसी जगहें नहीं हैं,जहाँ स्कूल और प्राथमिक चिकित्सा का अभाव है |
मांझी ने जो किया,वह एक सनक थी | सामाजिक अत्याचार और फिर जीवन के सबसे क़ीमती इंसान के चले जाने के आघात से उपजी सनक | एक ऐसी मानसिक स्थिति जहाँ इंसान को कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई उसे पागल कहे या उसे पत्थर मारे | उसे सिर्फ़ तय करना होता है और लग जान होता है | मांझी ने गहलौर से वज़ीराबाद तक की 70 किलोमीटर की दूरी को 10 किलोमीटर से भी कम कर दिया |
जो परिस्थितियाँ दशरथ मांझी को दशरथ मांझी बनाती हैं,जिन परिस्थितियों में फगुनिया जैसी कितनी ही स्त्रियाँ मरती हैं या जीती हैं,उनके बच्चे बड़े होते हैं,अकाल के कारण गाँव बदलते हैं,शहरों में आकर मज़दूरी करते हैं,रिक्शा चलाते हैं,गालियाँ खाते हैं,मैला ढोते हैं,कब कैसे मर जाते हैं,इनसे गुज़रना तो छोड़िए,क़रीब से जान भर लेने के बाद किसी ईश्वर में,सरकार में या न्याय में आपकी आस्था नहीं रह पाएगी | यह ज़ुल्म और बेबसी का ऐसा दलदल है जिसमें जाने कितने यूँ ही धँस गए |
निश्चय ही यह प्रेम और सनक की अविश्वसनीय सी कहानी है | छैनी-हथौड़े के बल पर मांझी ने जो किया,उसका लाभ आगे आने वाली पीढ़ियों को मिलता रहेगा |
इतना मज़बूत विषय और कहानी होने के बाद भी फ़िल्म उतना असर नहीं छोड़ती | केतन मेहता यथार्थ में ड्रामा भरते हुए फ़िल्म की रूह को ढील देते हुए लगे | कहानी कहने का तरीका असर नहीं छोड़ता | फ़िल्म के मूल में मांझी का पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने का निर्णय,उसका अपनी पत्नी से प्रेम के कारण था | लेकिन यहीं पर पहुँचकर फ़िल्म हल्की हो जाती है | मांझी और फगुनिया की प्रेम कहानी का बौलिवुडीकरण उसे नकली-सा बना देता है | इसलिए वहाँ से जो संघर्ष उभर कर आना चाहिए था,वह नहीं दिखता |
नवाज़ को देखना अभिनय सीखने जैसा है | उनका सफल होना भी पहाड़ तोड़ने सरीखा है | निश्चय ही नवाज़ का सफल होना,एक नई ऊर्जा भरता है और बताता है कि सिर्फ़ और सिर्फ़ बेहतरीन अभिनय के दम पर भी आप अपनी जगह बना सकते हैं | लेकिन फिर तैयार रहना होगा अपने हिस्से की चुनैतियों और लाचारी से लड़ने के लिए | राधिका आप्टे जो भी किरदार करती हैं,पूरी तरह वही हो जाती हैं |
फ़िल्म नवाज़ के लिए देखी जानी चाहिए और मुम्बईया सिनेमा से अलग हटते विषय के लिए भी | और एक बात जो मैं ख़ुद से कहना चाहता हूँ,वो यह कि-
“बहुत लम्बा दंगल चलेगा रे !”
युवा कवि और अभिनेता हैं। इंजीनियरिंग की डिग्री के बाद कुछ समय नौकरी की और फिर थिएटर करने दिल्ली चले आए। तीन साल अरविंद गौड़ के अस्मिता थिएटर के साथ अभिनय किया और अब मुंबई में हैं। पिछले कुछ समय से अभिनय से भी कहीं ज़्यादा लेखन, प्रदीप अवस्थी की कविताएं ऑनलाइन धूम मचाए हुए हैं, बेहद तीखी और मारक कविताएं। प्रतिभाशाली युवा कवियों में नाम शुमार।