जनसंहार के मामलों पर उदासीनता हमारी राष्ट्रीय संस्कृति हो गई है – तीस्ता सेतलवाड़ (साक्षात्कार)
कुछ लोग तीस्ता सेतलवाड़ को बीजेपी की आंख का कांटा मानते हैं; कुछ एक ऐसी असुविधा, जो किसी भी तरह 2002 के गुजरात दंगों को भूलने नहीं देंगी।
और कई लोग भी हैं, जो उनको एक निडर सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं, जो लगातार न्याय और धर्मनिरपेक्षता के मोर्चे पर डटी हैं।
लेकिन तथ्य यह है कि आज गुजरात दंगों, उसके पीड़ितो और उसके पीछे की ताक़तों का ज़िक्र, तीस्ता का हवाला दिए बिना नहीं किया जा सकता है।
तीस्ता ने अपना करियर 33 साल पहले एक पत्रकार के तौर पर शुरु किया था। 1992 में मुंबई दंगों के बाद उन्होंने जावेद आनंद के साथ साम्प्रदायिकता और उसके खिलाफ लड़ाई को समर्पित एक पत्रिका शुरु की और उसे कम्युनलिज़्म कॉम्बेट का नाम दिया।
Teesta Setalvad
उन्होंने बहुरंगी भारत के लिए शिक्षा का एक कार्यक्रम शुरु किया, जिसे खोज नाम दिया गया। 2002 से वह गोधरा के बाद हुए दंगों के पीड़ितों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ रही हैं, जिस वजह से वह उन लोगों के निशाने पर हैं, जो उन्हें चुप देखना चाहते हैं।
यह कोई संयोग नहीं कि केंद्र और राज्य सरकार के द्वारा उनके खिलाफ 16 जांच शुरु की जा चुकी हैं। पहले ही चार बार उनको अपने लिए अंतरिम ज़मानत की मांग करनी पड़ी है।
उनको आर्थिक फंडिंग देने वाला फोर्ड फाउंडेशन भी सरकारी दंश झेल रहा है।
सुहास मुंशी के साथ इस साक्षात्कार में, तीस्ता अपने ऊपर लगाए गए, तमाम आरोपों के बारे में बात कर रही हैं, वो गुजरात दंगों के पीड़ितों के लिए अपनी न्याय की लड़ाई के बारे में बोल रही हैं और साथ ही अपनी कुछ सबसे मुश्किल क़ानूनी लड़ाई और उपलब्धियों के विषय में बता रही हैं।
सुहास – पहला सवाल यह कि आप अपने दो एनजीओ को गृह मंत्रालय द्वारा भेजे गए नोटिस, सीबीआई को आपके बैंक खातों को निष्क्रिय कर देने और आपकी कम्पनी पर कथित एफसीआरए उल्लंघन को लेकर फंड ट्रांसफर की जांच पर क्या प्रतिक्रिया देना चाहेंगी? मंत्रालय ने मूल रूप से आपकी कम्पनी सबरंग कम्युनिकेशन्स और प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड (SCPPL) को लेकर तीन अहम सवाल उठाए हैं। एक कि एक लिस्टेड निजी कम्पनी के तौर पर SCPPL, विदेशी योगदानकर्ताओं से धन नहीं ले सकती है और बिना पूर्व स्वीकृति के ऐसा करना, एफसीआरए (विदेशी मुद्रा नियमन अधिनियम) के अनुच्छेद 11 का उल्लंघन है। दूसरा कि आपकी कम्पनी ने प्राप्त की गई विदेशी फंडिंग का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा और तीसरा यह कि आपकी कम्पनी ने राजनैतिक दलों के साथ ग़ैरक़ानूनी लॉबीइंग की। इस की वजह के कम्पनी के खर्चों पर भी कई शक हो रहे हैं। आपका इन आरोपों पर क्या कहना है?
तीस्ता – मार्च के मध्य में, गुजरात सरकार के गृह मंत्रालय ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को हमारे एनजीओ, सबरंग ट्रस्ट और सिटीज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस के खिलाफ जांच शुरु करने के लिए एक पत्र लिखा। प्रधानमंत्री बनने के पहले, गृह मंत्रालय नरेंद्र मोदी के पास था।
इसमें कोई हैरत की बात नहीं है कि हमको इस तरह के नोटिस मिले। हम पूरा सहयोग कर रहे हैं और हमको विश्वास है कि हमारे द्वारा किसी भी क़ानून का उल्लंघन नहीं किया गया है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीजेपी और सबरंग ट्रस्ट के रेकॉर्ड्स की जांच से अपना काम शुरु किया, अब वह अपना निशाना सबरंग कम्युनिकेशन्स पर साध रहे हैं।
सत्ता और उसके अंगों का दुर्भावना से प्रेरित हो कर किसी के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने के परम्परागत तरीकों का यह एक आदर्श मामला है। चूंकि अब 7 जुलाई को हमारी ज़मानत की याचिका की सुनवाई होनी है, इसलिए हर प्रकार का हथकंडा अपनाया जा रहा है।
जहां तक केंद्रीय गृह मंत्रालय की बात है, एफसीआरए का सेक्शन 3, 2010 कुछ विशिष्ट व्यक्तियों (राजनैतिक दल एवम् उनके पदाधिकारी, सरकारी कर्मचारी और पंजीकृत अख़बारों तथा समाचार प्रसारण से जु़ड़े लोग) को विदेशी फंडिंग हासिल करने से रोकता है।
लेकिन अगले ही सेक्शन में, सेक्शन 4, जिसका उपशीर्षक है, ‘वे लोग, जिन पर सेक्शन 3 लागू नहीं होता है,’ कहता है, “सेक्शन 3 में दिए गए प्रावधान उन लोगों पर नहीं लागू होंगे, जो विदेशी फंडिग सेक्शन 10 – ए के मुताबिक अपने अधीन काम करने वालों के लिए सैलरी, पारिश्रमिक या किसी अन्य प्रकार का मेहनताना देने के लिए अथवा भारत में सामान्य व्यापारिक लेनदेन के मुताबिक ले रहे हैं।”
SCPPL, जो मासिक पत्रिका कम्युनलिज़्म कॉम्बेट प्रकाशित करती है, उसने 2002 में ही फोर्ड फाउंडेशन के साथ एक परामर्श अनुबंध किया था, जिससे “जाति और साम्प्रदायिकता के मुद्दे के लिए” एक पूर्वनिर्धारित गतिविधियों के साथ काम किया जाए, जिसका कम्युनलिज़्म कॉम्बेट अथवा जावेद आनंद और तीस्ता सेतलवाड़ के पत्रिका के सम्पादन के पारिश्रमिक से कोई सम्बंध नहीं था।
सबरंग कम्युनिकेशन्स ने परामर्श अनुबंध, प्रतिष्ठित क़ानूनी सलाहकारों की सलाह के बाद ही हस्ताक्षर किया था, कि इस प्रकार के अनुबंध के द्वारा एफसीआरए के सेक्शन 4 का उलंल्घन नहीं हो रहा है, इसलिए प्राप्त परामर्श फीस (न कि अनुदान अथवा दान) किसी प्रकार से एफसीआरए का उल्लंघन नहीं करता है।
वास्तव में फोर्ड फाउंडेशन ने इस में परामर्श फीस की हर किस्त के साथ, टीडीएस भी काटा था। इस भुगतान के बदले में संचालित गतिविधियां अनुबंध के मुताबिक थी। गतिविधियां और वि्त्तीय रिपोर्ट, फोर्ड फाउंडेशन की संतुष्टि से हर वर्ष जमा की जाती रही।
दूसरी बात, सबरंग ने इसका रेकॉर्ड रखा है और, एफसीआरए की टीम के 9 और 10 जून, 2015 के मुंबई दौरे के दौरान उसकी प्रति एफसीआरए को भी दी। इसके अतिरिक्त एफसीआरए टीम द्वारा मांगे गए दस्तावेज भी उनको भेज दिए गए।
तीसरी बात यह कि जानबूझ कर या किसी और कारण से, इस पक्षधरता को उस लॉबीइंग से भ्रमित कर रही है, जो अमेरिकी राजनैतिक व्यवस्था का भाग है, जबकि भारत में सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट और एनजीओ सरकार के साथ उसका ध्यान महिलाओं, बच्चों, दलितों, धार्मिक अथवा लैंगिक अल्पसंख्यकों और शारीरिक विषमताओं के शिकार लोगों की न्यायसंगत मांगों की ओर आकृष्ट करवाने के लिए सरकार के साथ जूझते हैं।
इस प्रकार की पक्षधरता के कामों को लॉबीइंग के साथ जोड़ने वाली बात ही अतार्किक है।
इसलिए सबरंग कम्युनिकेशन्स इन सभी आरोपों को खारिज करता है।
सुहास – गुलबर्ग सोसायटी के मामले में पीड़ितों की याद में एक स्मारक बनाने के नाम पर लोगों से ठगी के केस के बारे में आप क्या कहेंगी, जिसमें जावेद आनंद और तीन और लोगों के साथ आप पर भी केस दर्ज हुआ है?
तीस्ता – 18 महीने पहले क्राइम ब्रांच, अहमदाबाद के द्वारा एक दुर्भावना से प्रेरित एफआईआर दर्ज की गई थी, जो साधारणतः गुलबर्ग मेमोरियल के लिए एकत्रित फंड्स की बात करती है।
यह फंड्स 4.6 लाख की विशाल धनरासि है, जो अभी भी हमारी इस प्रोजेक्ट को आगे ले जाने की अक्षमता के चलते अप्रयुक्त पड़ा है। आज तक 24 हज़ार पन्नों के दस्तावेजी सुबूतों को फाइल करने के बावजूद, कोई चार्जशीट तक दाखिल नहीं की गई है।
गुजरात की पूरी सरकार हमको सार्वजनिक रूप से उत्पीड़ित और अपमानित करने की प्रक्रिया में रुचि लेती प्रतीत होती है।
सुहास – बेस्ट बेकरी केस में मुख्य गवाह – यास्मीन शेख ने तत्कालीन गुजरात के डीजीपी के कार्यालय में एक एफआईआर दाखिल की, जिसमें पूर्व पुलिस अधिकारी आर बी श्रीकुमार और आपके खिलाफ गोधरा पश्चात दंगों के नाम पर पैसे बनाने का आरोप लगाया है। यह एक गंभीर आरोप प्रतीत होता है।
तीस्ता – पहले से चल रहे अदालती मामलों को प्रभावित करने के लिए लगाए जा रहे झूठे आरोपों की ही एक कड़ी ये भी है, जिसमें आरएसएस और बीजेपी के अनेक मुख्य लोगों पर गंभीर आरोप हैं। कभी कोई गुजरात की सरकार से सवाल क्यों नहीं करता है, जिसने कभी भी 2002 के जनसंहार के दोषियों के खिलाफ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की?
आखिर क्यों, गुजरात सरकार उन सभी लोगों को सज़ा दिलवाने की जगह उन 120 लोगों को आज़ाद करवाने की कोशिश में है, जिनको गवाहों के बयानों के आधार पर गिरफ्तार कर के जेल भेजा गया है।
आज हमारी टीम, सभी मुश्किलों और राजसत्ता की दुर्भावना के खिलाफ काम कर रही, तो सिर्फ इसलिए कि दोषियों को सज़ा मिले।
हाल ही में माया कोडनानी के मामले में (जो कि बेहद जल्दबाज़ी में गुजरात हाईकोर्ट में दाखिल की गई), हमारा ही दखल था, जिसने यह सुनिश्चित किया कि सही प्रक्रिया का पालन हो और सभी आरोपियों की अपील को एक साथ ही सुना जाए।
क्या यह ज़रूरतमदों को लगातार क़ानूनी मदद उपलब्ध करवाना ही वह काम है, जिससे यह सरकार चिढ़ी हुई है।
सुहास – अतीत में आपके ऊपर मामले के प्रत्यक्षदर्शियों को उकसाने का आरोप भी लगा है। आप इस पर क्या प्रतिक्रिया देना चाहेंगी?
तीस्ता – शारदापुरा मामले (2011), नरोडा पटिया मामले (2012) और बेस्ट बेकरी (2006) के मामले में दुर्भावना से ग्रस्त सरकार के सभी प्रयासों के बावजूद, मेरे या मेरे संगठन के खिलाफ किसी भी तरह के प्रत्यक्षदर्शियों को उकसाने के झूठे आरोप साबित नहीं हुए।
न्यायिक अदालतों ने भी कहा है कि हमने प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही में मदद की थी, जो कि एक विधिसम्मत और संवैधानिक कृत्य था।
मक़सद साफ था, हमको इस प्रकार की क़ानूनी उलझनों में फंसा कर, हमारे उस काम को धीमा कर देना, जो आरएसएस द्वारा संचालित इस सरकार के वैचारिक ढांचे को भारतीय संविधान के आधार पर चुनौती दे रहा था, जो कि एक हिंदू राष्ट्र के लिए प्रतिबद्ध है। साथ ही उस भीड़ का तुष्टीकरण भी करना, जो इस विचारधारा का समर्थन करती है।
सुहास – कई लोग आपके ऊपर गुजरात सरकार या गृह मंत्रालय द्वारा किए जा रहे हमले को शत्रुतापूर्ण कार्रवाई मानते हैं। आपको क्या लगता है कि आपको किस कारण से निशाने पर लिया जा रहा है? आपके किस काम के कारण, गुजरात और केंद्र सरकार को अधिक समस्या है?
तीस्ता – सत्ता में बैठी सरकार को इस समय सबसे ज़्यादा ख़तरा ज़किया जाफ़री मामले से है, जिसकी सुनवाई 7 जुलाई से गुजरात उच्च न्यायालय में शुरु हो रही है।
अहसान जाफ़री की विधवा, जिनकी हम मदद कर रहे हैं, वह कई शक्तिशाली लोगों के खिलाफ क़ानूनी कार्रवाई चाहती हैं, जिनमें अपनी भूमिका के लिए नरेंद्र मोदी (आपराधिक, प्रशासनिक) भी जनसंहार और सम्पत्ति के नुकसान को होने देने के लिए शामिल हैं।
हमारे केस का आधार, सुप्रीम कोर्ट के लिए राजू रामचंद्रन की एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट है, जिसमें साफतौर पर नरेंद्र मोदी, कुछ वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, अहमदाबाद के वर्तमान पुलिस कमिश्नर के साथ अन्य कई अहम राजनेताओं के खिलाफ अभियोग दाखिल करने के लिए पर्याप्त सुबूतों की बात की गई है।
अपनी कोशिशों से हम ने 120 सज़ाएं दिलवाई हैं, जिनमें आजीवन कारावास भी शामिल है, इसके लिए हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा उपलब्ध सुरक्षा के लिए आभारी हैं, जो कि 570 अहम प्रत्यक्षदर्शियों को उपलब्ध करवाई गई।
हेस्ट बेकरी केस के अलावा, नरोडा पटिया. ओढ़ और शारदापुर मामले में फैसले अपने आप में ऐतेहासिक उपलब्धियां हैं और उनसे दीर्घकालिक न्यायिक प्रभाव पड़ा है।
सुहास – सत्ता से टकराना, आग में हाथ डालना है। आपने कोई सबक सीखा?
तीस्ता – मैंने सीखा और अनुभव किया है कि सरकारें, अपने खिलाफ़ सेमिनार, लेखन और वर्कशॉप्स तो झेल लेती हैं, लेकिन जब आप उनको क़ानूनी तौर पर चारित्रिक बल और उनको क़ानूनी तौर पर दोषी ठहरा पाने का दृढ़ निश्चय दिखाते हैं, सब पाले बदलते हैं, जब दोष सिद्ध होता है, जब जन अपराधों के पीछे के विधिसम्मत अधिकार प्रदाता शक्तियां आती हैं, तब आप सरकार और तंत्र के लिए वाकई ख़तरा बन जाते हैं।
दुर्भाग्य से चुनावी लोकतंत्र की सफलता के बारे में जब हम दंभ भरते हैं, हम दरअसल दंड के अभाव, व्यापक जनसंहारों के मामलों में दोष सिद्ध होने, खराब गुणवत्ता की जांच और सरकारी अभियोजन एजेंसियों के उदासीन रवैये को लेकर कितने चिंतित होते हैं?
क्या हमारे यहां इस तरह की उदासीनता की संस्कृति को लेकर राष्ट्रीय बहस खड़ी होती है?
सुहास – आपको क्या लगता है कि गुजरात में अपने काम से आप ने पिछले 13 सालों में क्या हासिल किया है?
तीस्ता – हालिया घटनाक्रम की बात करें, तो हम ने इस मामले के शक्तिशाली साज़िशकर्ताओं के आजीवन कारावास के 120 फैसले हासिल किए हैं, जो किसी मायने में छोटी उपलब्धि नहीं है।
कोडनानी और बजरंगी के अलावा भी जिनको सज़ा हुई है, वह गुजरात की ग्रामीण जाति व्यवस्था के शक्तिशाली समुदायों से आते हैं, जिनको सज़ा सिर्फ गवाहों के बयानों की दृढ़ता से ही संभव हुई है।
सोचिए कि एक खेतिहर मजदूर है, जिसके परिवार के 33 सदस्य ज़िंदा जला दिए गए हों, वह हत्यारों के खिलाफ खुल कर गवाही दे, क्योंकि उसे भारत के उच्चतम न्यायलय से सुरक्षा मिली हुई हो।
और यह इस से पहले कभी नहीं हुए।
साथ ही एनएचआरसी की 2003-2003 की रिपोर्ट और उसके सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप का भी शुक्रिया, कन्संर्न्ड सिटिज़न्स ट्रिब्यूनल की मानवता के खिलाफ अपराधों की रिपोर्ट, 12 अप्रैल, 2004 को बेस्ट बेकरी मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय, जन अपराधों और पीड़ितों के मामले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक हस्तक्षेप का भी शुक्रिया। 2009 में सीआरपीसी के सेक्शन 24 (8) (2) में एक संशोधन ने शिकायतकर्ता या पीड़ित को अभियोजन में अधिवक्ता की सहायता करने का अधिकार दे दिया, जो कि अपना वकील करने और स्वतंत्र रूप से केस को आगे बढ़ाने के लिए था।
बारह हाईकोर्ट के फैसलों ने इस प्रावधान को बरक़रार रखा है, जिसका सीधा मतलब है कि दुर्भावना से प्रेरित सत्ता से प्रभावित आपराधिक न्याय व्यवस्था, दोषी को सज़ा देने में रुचि ही नहीं लेती है, उसका अब इलाज हो रहा है। इस संशोधन के द्वारा, बंद हो चुके केस भी पीड़ित, शिकातकर्ता या समूहों की शिकायत पर खोले जा सकते हैं।
सुहास – आपको अब तक, अपनी सबसे मुश्किल लड़ाई क्या लगती है?
तीस्ता – हमारी नीति और उद्देश्य जनसंहार के पीड़ितों को चेहरा और आवाज़ देना रहा है, वो चाहें 1992-93 के मुंबई दंगे हों या फिर 2002 का गुजरात।
हो सकता है कि हमको आशानुरूप न्याय न मिला हो, लेकिन 2002 के घटनाक्रम के सरकार से जुड़े साक्ष्यों और दस्तावेजी प्रमाणों के ढेर को सार्वजनिक रूप से सामने रखने के हमारे प्रयासों को जिस प्रकार का व्यापक समर्थन और प्रशंसा मिली है, वह अप्रत्याशित है।
ज़किया जाफ़री की विरोध याचिका पर काम करते हुए, हमारे हाथ जो जांच के दस्तावेज लगे, वह अब सार्वजनिक हैं, वह न केवल खुलासा भर हैं बल्कि 2002 दंगों की पूर्वनियोजितक साज़िश की ओर इशारा करते हैं। वह अपराध शास्त्र के छात्रों के लिए महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय हो सकते हैं, कि किस प्रकार अभियोजन के लिए भविष्य में साक्ष्य एकत्र किए जाएं।
इन मानवीय प्रयासों और सामग्रियों का मूल्य अत्यधिक है, क्योंकि लोग आपसे थक जाने और हार मान लेने या फिर किसी और मुद्दे की ओर आकर्षित हो जाने की अपेक्षा करते हैं। किसी उद्देश्य के लिए, इस प्रकार की निरंतरता के साथ इस प्रकार के महत्वपूर्ण नतीजे हासिल करना, असामान्य माना जाता है, वो भी तब जब चीज़ों को उपेक्षित छोड़ देना, हमारी संस्कृति बन गया हो।
सुहास – जब से आप ने गुजरात दंगों के पीड़ितों के लिए काम करना शुरु किया, आपको किस प्रकार का समर्थन मिला है?
तीस्ता – ज़बर्दस्त समर्थन मिला है, न केवल दंगा पीड़ितों से, बल्कि आम हिंदुस्तानियों से भी। कई बार तो भावुक कर देने वाला समर्थन मिलता है।
देश के राजनैतिक वर्ग से भी मुझे समर्थन मिलता रहा है, बुद्धिजीवियों, वकीलों, शिक्षाविदों, जनांदोलनों से और सामाजिक कार्यकर्ताओं से भी।
सत्ता हमको तोड़ने के लिए हमारे बैंक अकाउंट फ्रीज़ कर के, अपना पूरा ज़ोर लगा रही है। लेकिन हम अपना काम सततता से कर रहे हैं क्योंकि न केवल हमारा हौसला अटूट है बल्कि हमारी टीम भी इसके लिए तैयार है, हमारे ट्रस्ट के बोर्ड का समर्थन लगातार हमारे साथ है और उदार भारतीयों का योगदान भी जो ये मानते हैं कि हमारा काम न केवल ज़रूरी है, बल्कि जारी भी रहना चाहिए।
हालांकि सीधे तौर पर एक दुर्भावना से प्रेरित सरकार से मुकाबला करना, ऊर्जा, संसाधनों और सामर्थ्य को खत्म कर देने वाला है, लेकिन प्रतिरोध की ताक़त ही हमारी प्राणशक्ति है।
सुहास – एक अलग परिप्रेक्ष्य में क्या आपको लगता है कि नरेद्र मोदी सरकार, हिंदू राज्य के एजेंडे को बढ़ावा दे रही है या उसके केंद्र में होने से संविधान की बहुलतावादी अवधारणा को ख़तरा है?
तीस्ता – जब एक धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री न केवल नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर का दौरा करते हैं, बल्कि 4.96 करोड़ रुपए का दान देते हैं, तो इसका क्या निहितार्थ है?
ज़रा प्रतीकों को देखिए, मानव संसाधन एवम् विकास मंत्रालय द्वारा इतिहास औक संस्कृति को बदला जा रहा है और भारतीय ऐतेहासिक अनुसंधान केंद्र, एनसीईआरटी और मुंबई विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए मनपसंद नियुक्तियां हो रही हैं।
आज हमारे यहां ऐसे राज्यपालों की नियुक्ति हो रही है, जिनकी निष्ठा भारतीय संविधान और तिरंगे के प्रति नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के प्रति है। इन संकेतों को सभी देख सकते हैं। ये सर्वव्यापी हैं। हमारी सभी संस्थाओं को इसका प्रतिरोध करना ही होगा।
सुहास – 2002 के दंगों के पीड़ितों के लिए लड़ाई शुरु किए हुए, आपको 13 साल हो गए हैं। इस समय के दौरान आपको धमकियां मिली, आपकी छवि खराब की गई, दुष्प्रचार हुआ। क्या कारण रहा कि आप डटी रही?
तीस्ता – ज़िद, दृढ़ आग्रह…विश्वास कि हम उस आदर्श के लिए खड़े हैं, जिसकी नींव पर इस देश, संविधान और क़ानून का निर्माण हुआ था। यह ही वह सिद्धांत है, जिससे हमको ऊर्जा मिलती है। लेकिन यह कठोर, थकाने वाला और ऊर्जा सोख लेने वाला है। युद्ध जारी है, पाले खींच दिए गए हैं। हमारे मुताबिक, यह लड़ाई भारत को बचाने के लिए है, वह भारत जैसा कि सोचा और संघर्ष कर के हासिल किया गया था।
साक्षात्कारकर्ता सुहास मुंशी, भूतपूर्व इंजीनियर और वर्तमान पत्रकार हैं। कैच न्यूज़ के प्रधान संवाददाता सुहास इसके पहले अखबारों के लिए लिखते रहे हैं और परम्परागत पत्रकारिता से दूर रहना चाहता हैं। (स्रोत – कैच न्यूज़ पर इन्फो)