
अक्सर अकेले में ढुंढती हूँ,
उन छः महीनों का हाल,
बस खुद को यकीं दिलाने को,
के हाँ, शायद मैं बचा सकती थी तुम्हें….
खंगालती हूँ अपने दिमाग का हर इक कोना,
याद करने को उस ताले का नंबर,
जिसमे छुपाये तुम्हारी डायरी के कुछ पन्ने,
शायद अभी भी इंतजार करते होंगे मेरा…
तुम्हारी काबिलियत पर कभी भी,
शक न था मुझे,
तभी तो आज भी हर रोज़,
मैं हारती हूँ तुम्हारी बनाई हर पहेली से…
मगर ये हार उस हार से,
ज़्यादा बदसूरत नहीं,
जो तमाम कोशिशों के बावजूद,
तुम्हे ज़िन्दा न रख सकी…
फिर भी तुम्हारा न होना,
ज़रूरी है मेरे लिए,
क्यूंकि मेरे सुकूं का वजूद,
छुपा है उसमे…
सबने मुझे स्वार्थी कहा,
और हाँ मैं हूँ स्वार्थी,
क्यूंकि तुम्हारी जड़ता की बलि
नहीं चढ़ना चाहती थी मैं…
नहीं मानती मैं खुद को ज़िम्मेदार,
तुम्हारी तड़प के लिए,
तुम्हारे अधूरे सपनों के लिए,
तुम्हारी असमय मृत्य के लिए…
तुम्हारे न होने की
न तो ख़ुशी है,
न कोई गम,
क्यूंकि अगर तुम न जाते
तो शायद ये कविता,
मेरे लिए तुम लिख रहे होते…